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कोई अपना नहीं

 किससे कहें दर्दे फसाना अपना,लोगों की भीड़ में कोई अपना नहीं  वक्त की सितम ज़रीफी देखो, इन अपनों में कोई अपना नहीं  मोजो में रवानी नहीं, साहिल का किनारा नहीं दोस्त तो बहुत हैं लेकिन इन अपनों में कोई अपना नहीं ज़िंदगी बड़ी वीरान सी लगती है, शहर ख़ामोश सा लगता है रात की तारीकियों में उजाले की कोई किरन नहीं सुबह का नूर और पटरी पर दौड़ती ये ज़िंदगी इस ज़िंदगी में लज़्जत और ख्वाहिशात की कोई शय अपनी नहीं इस ज़िंदगी में किसे कहें अपना, कोई अपना नहीं। सदफ

रिश्तों की गर्मजोशी का ठंडापन

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रिश्तों की सर्द ज़द में हम पिघलने लगे धीरे धीरे खुद को हम उसमें समाने लगे यूँ तो हमारा एक वजूद हुआ करता था पर उसकी चाहत में हम खुद को मिटाने लगे रिश्तों की इस मिठास में हम खोने लगे अपने जज़्बातों को सरेआम करने लगे रिश्तों की गर्माहाट का यूँ असर हुआ कि हम अपने वजूद को खुद ही बदलने लगे अपनी चाहत को हम आसमां समझने लगे इस रिश्ते को मसरूफ़ियत में से समय देने लगे हमारी दीवानगी का आलम कुछ यूँ हुआ कि सब कुछ छोड़ हम, उनको तवज्जो देने लगे वो हमारी अना को फना करके उछलने लगे हमारे जज़्बातों को सरेआम कुचलने लगे ऐ सदफ इस टूटे दिल का फ़साना यूँ हुआ कि रिश्तों की गर्मजोशी को हम,ठंडेपन में बदलने लगे सदफ़