कोई अपना नहीं

 किससे कहें दर्दे फसाना अपना,लोगों की भीड़ में कोई अपना नहीं

 वक्त की सितम ज़रीफी देखो, इन अपनों में कोई अपना नहीं 

मोजो में रवानी नहीं, साहिल का किनारा नहीं

दोस्त तो बहुत हैं लेकिन इन अपनों में कोई अपना नहीं

ज़िंदगी बड़ी वीरान सी लगती है, शहर ख़ामोश सा लगता है

रात की तारीकियों में उजाले की कोई किरन नहीं

सुबह का नूर और पटरी पर दौड़ती ये ज़िंदगी

इस ज़िंदगी में लज़्जत और ख्वाहिशात की कोई शय अपनी नहीं

इस ज़िंदगी में किसे कहें अपना, कोई अपना नहीं।

सदफ


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