हुआ जो संजोग आज ब्लॉग बनाने का.... लेकर आया पैगाम कुछ कर गुजरने का... अल्फाजों को बयाँ करने का सोचा जो मैने.. तो मौका मिला जिंदगी का नया पन्ना लिखने का.. कलम को पहचान बनाने का जिम्मा सौंपा जो आपने... उन्ही उम्मीदों पर खरा उतरने का वादा किया खुद से... सौगंध खाती हूँ गर मिला आशीर्वाद आप सब पाठकों से तो जिंदगी जीने का मकसद ही सदफ की लेखनी होगा... @सदफ @
किससे कहें दर्दे फसाना अपना,लोगों की भीड़ में कोई अपना नहीं वक्त की सितम ज़रीफी देखो, इन अपनों में कोई अपना नहीं मोजो में रवानी नहीं, साहिल का किनारा नहीं दोस्त तो बहुत हैं लेकिन इन अपनों में कोई अपना नहीं ज़िंदगी बड़ी वीरान सी लगती है, शहर ख़ामोश सा लगता है रात की तारीकियों में उजाले की कोई किरन नहीं सुबह का नूर और पटरी पर दौड़ती ये ज़िंदगी इस ज़िंदगी में लज़्जत और ख्वाहिशात की कोई शय अपनी नहीं इस ज़िंदगी में किसे कहें अपना, कोई अपना नहीं। सदफ
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