यूं ज़िंदगी के ख़्वाब दिखा गया कोई मुस्कुराके अपना बना गया कोई बहती हुई हवाओं को यूं थाम ले गया कोई सावन में आके कोयल का गीत सुना गया कोई यूं अपने प्यार की हवा से गम को मिटा गया कोई मीठे सपनों में आके अपना बना गया कोई धूल लगी किताब के पन्ने पलट गया कोई उसमें सूखे हुए गुलाब की याद दिला गया कोई यूं ज़िंदगी में फिर से प्यार की बरसात दे गया कोई बिन आहट के इस दिल में जगह बना गया कोई यूं फिर से मुझे जीने का मकसद सीखा गया कोई बिन आहट अपना बना गया कोई❤️❤️❤️ 💞💞💞💞💞💞💞💞💞 शालिनी मोहतरमा आपके लिए। आपकी अपनी सदफ💕💗
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वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है
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आज वो पहली मुलाकात का किस्सा याद आता है स्कूल में अभिवादन करने का मंजर नज़र आता है हिंदी की अलख जलाने की आपकी ज़िद का वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है आप जैसी हिंदी की टीचर का बोलना याद आता है आपके सवालों का उत्तर न देने का मलाल होता है लेकिन आपके हिंदी में समझाने के उन अभिकथनों का वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है मेरी ज़िंदगी के रंजोगम में आपका दखल देना याद आता है मां के किरदार को निभाकर आपका समझाना याद आता है आपके अपनेपन के एहसासों की सरगोशी का वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है आपका वो गले लगाकर हक जताना याद आता है ज़िंदगी की उलझनों के दलदल से निकलना याद आता है लोगों की भीड़ के हमदर्दों में आपकी हमदर्दी का वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है हिंदी की दुनिया में मुझे भेजने का वो सपना याद आता है मेरे किरदार को बदलने का सारा श्रेय आपको जाता है कांटो की डगर पर आपकी उंगली पकड़ कर चलने का वो गुज़रा हुआ हर लम्हा शिद्दत से याद आता है ज़िंदगी के मुकाम को पाने में आपका सहयोग याद आता है आपकी हर बात में सच्चाई का आइना नजर...
कोई अपना नहीं
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किससे कहें दर्दे फसाना अपना,लोगों की भीड़ में कोई अपना नहीं वक्त की सितम ज़रीफी देखो, इन अपनों में कोई अपना नहीं मोजो में रवानी नहीं, साहिल का किनारा नहीं दोस्त तो बहुत हैं लेकिन इन अपनों में कोई अपना नहीं ज़िंदगी बड़ी वीरान सी लगती है, शहर ख़ामोश सा लगता है रात की तारीकियों में उजाले की कोई किरन नहीं सुबह का नूर और पटरी पर दौड़ती ये ज़िंदगी इस ज़िंदगी में लज़्जत और ख्वाहिशात की कोई शय अपनी नहीं इस ज़िंदगी में किसे कहें अपना, कोई अपना नहीं। सदफ
रिश्तों की गर्मजोशी का ठंडापन
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रिश्तों की सर्द ज़द में हम पिघलने लगे धीरे धीरे खुद को हम उसमें समाने लगे यूँ तो हमारा एक वजूद हुआ करता था पर उसकी चाहत में हम खुद को मिटाने लगे रिश्तों की इस मिठास में हम खोने लगे अपने जज़्बातों को सरेआम करने लगे रिश्तों की गर्माहाट का यूँ असर हुआ कि हम अपने वजूद को खुद ही बदलने लगे अपनी चाहत को हम आसमां समझने लगे इस रिश्ते को मसरूफ़ियत में से समय देने लगे हमारी दीवानगी का आलम कुछ यूँ हुआ कि सब कुछ छोड़ हम, उनको तवज्जो देने लगे वो हमारी अना को फना करके उछलने लगे हमारे जज़्बातों को सरेआम कुचलने लगे ऐ सदफ इस टूटे दिल का फ़साना यूँ हुआ कि रिश्तों की गर्मजोशी को हम,ठंडेपन में बदलने लगे सदफ़
रिश्तों की टूटती डोर
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रिश्ते धीमी आंच पर दहकते कोएलों की तरह जल रहे थे सर्द नाज़ुक मौसम की शबनमी बूंदों से लिपट रो रहे थे क्या कहने ऐसे हसीन दर्दनाक रिश्तों की सौगातों को जो दिलों को जोड़ने के बजाए उनकी नीलामी कर रहे थे फलसफा इतना ही नहीं, ये मखमली बयान कर रहे थे दरअसल बनावटी रिश्तों के मर्म को पहचानना सिखा रहे थे क्या कहने ऐसे बेवफा रिश्तों की सुगबुगाहटों को जो ठंडे पड़े रिश्तों को मीठी गर्माहट देने को सोच रहे थे
मिलन की सांझ
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ट्रेन की रफ़्तार ने तूफ़ान की तरह गति पकड़ ली है, आसमां को बादलों ने अपनी बाहें फैलाकर ढक लिया है, पेड़ो ने लहलाहना शुरू कर दिया है , तितलियों ने नाचना शुरू कर दिया है , भंवरों ने गुनगुनाना शुरू कर दिया है, चारों और फूलों ने अपनी सुगंधित खुशबू बिखेरना शुरू कर दी है। दरअसल आज पूरे दो महीने बाद सलोनी अपनी प्रीत से मिलने जा रही है ।उससे मिलने की खुशी में सलोनी को अपना कोई खयाल नहीं है । कहाँ तो पूरा शहर लॉक डाउन के नियमों के पालन में व्यस्त है उधर सलोनी अपनी ही धुन में बिना कुछ सोचे समझे निकल पड़ी है प्रीत की झलक पाने को। इन दो महीनों में सलोनी की बेचैनी की गवाही उसका तकिया आसानी से बयाँ कर देगा। बिस्तर पर करवट बदलते रातों की निंदिया तो सलोनी की आंखों से ओझल हो चुकी थी ।अगर सोना भी चाहे तो उस पर प्रीत की यादें हावी हो जाती, बस फिर क्या? तकिये को गीला होने में कुछ ही सैकेंड्स लगते। ये सिलसिला दो महीने से यूहीं चल रहा था।आखिरकार सलोनी इस सिलसिले को आगे बढ़ाना नहीं चाहती थी।बस इसलिए आज ट्रेन में सवार हो गई....अपनी प्रीत से मिलने के लिये। सलोनी दो वर्ष पहले ही तो मिली थी प्रीत से। एक दिन...